चोटी की पकड़–108

पैंतीस



जमादार सूख रहे थे, चोरी खुलेगी, बहाना नहीं बन रहा। घबराए जो कलंक नहीं लगा, लगेगा, जेल होगी; बाप-दादों का नाम डूबेगा। राजा गए; दूसरी आफत रहेगी।

इसी समय मुन्ना मिली। जमादार ने देखा, उसमें स्फूर्ति है। उनकी बाछे खिल गईं, सोचा, बचत निकल आई।

मुन्ना ने अलग बुलाया। वे चले। दोनों घाट की चारदीवार की आड़ में एक मौलसिरी की छाँह में बैठे।

मुन्ना ने कहा, "अब किनारा साफ नज़र आ रहा है।"

"क्या बात है?" जमादार ने पूछा।

"एक महात्मा मिले हैं, उनसे आशा बँध रही है।"

"कहीं धोखा तो नहीं?"

"नहीं, सिर्फ तुम्हारा विचार है कि कहीं नीचा न दिखा दो। नहीं तो, लकड़ी साफ बैठेगी।"

"कैसे?"

"पहले बताओ, तुम हमारे साथ रहोगे या नहीं।"

"हमने तो बीजक तक दे दिया।"

"ठीक है। बात यह, हम दूसरी चाल चलेंगे।"

"क्या?"

"रानी को दूसरी तरह हाथ में करना है। पहला वार खाली गया। वह राह कट गई, अच्छा हुआ। वह सूझ खजांची की थी, अपनी भी। अब लाठी भी न टूटेगी और साँप भी मरेगा।"

"समझ में नहीं आया।"

"जमादार, बहुत गहरी बातें हैं। एकाएक समझ में न आयेंगी। ख़ज़ांची का साथ किसी सरकारी आदमी से है। खजांची की मार्फत एजाज से राज लेना चाहता है और हमारे राजा साहब का। 

राजा साहब सरकार के खिलाफ फँस जाएंगे; क्योंकि वे रास्ता बतानेवाले हमारे नए गुरुदेव के मददगार हैं और गुरुदेव सरकार के खिलाफ कार्रवाई करनेवालों में हैं। स्वदेशी का जो आंदोलन चला है, गुरुदेव उसमें हैं। 

सरकार चाहती है, बंगाल के दो टुकड़े कर दे। जमींदार ऐसा नहीं चाहते। उनको डर है कि स्थायी बंदोबस्त फिर न रह जाएगा। इसका देश में आंदोलन है।

 सरकार के लोगों का कहना है, स्थायी बंदोबस्त न रहने पर इतर जनों को फायदा पहुँचेगा, मुसलमान जनता सरकार के पक्ष में की जा रही है। असली बात इतनी है। 

हम लोग बहुत काफी बातचीत सुन चुके हैं। सच जो कुछ भी हो, मगर गुरुदेव की बात का असर पड़ता है। उन पर अपने आप विश्वास हो जाता है। बड़े अद्भुत आदमी हैं। 

इतर जन ही हम लोग हैं। हम लोग भी सहानुभूति और अधिकार चाहते हैं। यह हमको सरकार से तब मिलेगा, जब हम सरकार की जड़ मजबूती से पकड़ेंगे। मगर हमको रहना तुम्हीं लोगों में है।"

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